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तालिबान से संपर्क: 1992 में मुजाहिद्दीनों से बातचीत पर क्या था नरसिम्हा राव सरकार का रुख, क्या सीख लेगी मोदी सरकार?

अमेरिका के जाने के बाद अफगानिस्तान में जिस तरह की स्थिति उभरी है, वैसी ही कुछ स्थिति 1992 में भी सामने आई थी।

भारत सरकार अफगानिस्तान के मौजूदा हालात पर करीब से नजर रख रही है। खासकर काबुल के तालिबान के कब्जे में आने और अमेरिका को 31 अगस्त तक अफगानिस्तान छोड़ने की चेतावनी मिलने के बाद भारत पर खासा दबाव है। मोदी सरकार ने आगे की रणनीति तय करने के लिए 26 अगस्त को सर्वदलीय बैठक बुलाई है। इसमें सभी विपक्षी दलों को सरकार के कदमों की जानकारी दी जाएगी। माना जा रहा है कि सरकार तालिबान से बातचीत करने को लेकर भी बाकी दलों से सलाह-मशविरा कर सकती है। हालांकि, इस बीच एक बड़ी दुविधा ये है कि भारत तालिबान के साथ बातचीत के लिए किस तरह आगे बढ़ेगा। क्या मोदी सरकार पहले पश्चिमी देशों के आगे बढ़ने का इंतजार करेगी या अपने पहले के अनुभवों को आधार बनाकर आगे कदम उठा सकती है।

अमेरिका के जाने के बाद अफगानिस्तान में जिस तरह की स्थिति उभरी है, वैसी ही कुछ स्थिति 1992 में भी सामने आई थी। तब भारत में प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव की सरकार थी और सोवियत सेना हार के बाद 1992 में अपनी वापसी पूरी कर चुकी थी। यह वह समय था, जब सोवियत सेना के खिलाफ लड़ने वाले मुजाहिद्दीन जीत के नायक करार दिए जा रहे थे।

1980-1992 तक ऐसे थे भारत-अफगानिस्तान के रिश्ते

1992 से पहले की बात की जाए, तो भारत और अफगानिस्तान की सरकारों के बीच संबंध तब भी काफी बेहतर स्थिति में थे। भारत तत्कालीन सोवियत समर्थित राष्ट्रपति मोहम्मद नजीबुल्लाह के प्रति काफी अच्छा नजरिया रखता था। दरअसल, इसकी एक वजह यह थी कि अमेरिका उस दौरान पाकिस्तान के साथ मिलकर सोवियत सेना को हटाने और नजीबुल्लाह सरकार को गिराने की कोशिश में था। इस पूरे मामले में पाकिस्तान की भूमिका को देखते हुए राजीव गांधी सरकार ने नजीबुल्लाह का समर्थन किया। कहा जाता है कि उस दौरान अफगानिस्तान में भारत के जासूसी भी मौजूद रहते थे।

2000-2021 तक रिश्तों में आया ऐसा बदलाव

गौरतलब है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना के लौटने से ठीक पहले वहां प्रधानमंत्री हामिद करजई से लेकर अशरफ गनी तक की सरकार रही है। भारत सरकार ने 2005 के बाद से ही अफगान सरकारों से करीबी संबंध स्थापित करने शुरू कर दिए थे। इन बीतें सालों में भारत ने अफगानिस्तान में 3 अरब डॉलर (करीब 22 हजार करोड़ रुपए) की विकास परियोजनाएं शुरू कराईं। इनमें सड़क निर्माण से लेकर अफगान संसद का निर्माण तक शामिल रहा। इस तरह भारत पिछले कुछ सालों में अफगानिस्तान के पक्के मित्रों की सूची में शामिल रहा।

तब और अब: कट्टरपंथी सरकारों का रुख और पाकिस्तान?

1992 में क्या था हाल?
1989-90 के बीच सोवियत संघ के टूटने के बाद 1992 तक अफगानिस्तान की नजीबुल्लाह सरकार को मिलने वाली मदद पूरी तरह बंद हो गई। इसका असर यह हुआ कि अफगानिस्तान पर मुजाहिद्दीनों का राज कायम हो गया। बताया जाता है कि 1992 में अफगानिस्तान की बुरहानुद्दीन रब्बानी के नेतृत्व वाली मुजाहिद्दीन सरकार नजीबुल्लाह और सोवियत सेना का समर्थन करने की वजह से भारत से खासा नाराज थी। इसी दौरान अमेरिका की मदद से मुजाहिदों को अफगानिस्तान की सत्ता में लाने वाले पाकिस्तान ने भारत के प्रभाव को कम करना भी शुरू कर दिया।

2021 में ऐसे हैं हालात

इसी साल अमेरिकी सेना के लौटने के ऐलान के बाद तालिबान ने तेजी से अफगानिस्तान पर कब्जा जमाया और डेढ़ महीने के अंदर ही राजधानी काबुल पर भी कब्जा कर लिया। अशरफ गनी सरकार से भारत के रिश्ते बेहतर होने की वजह से फिलहाल मोदी सरकार तालिबान की सत्ता को लेकर चौकन्नी हो गई है और सीधे कोई भी कदम उठाने से बच रही है, उधर तालिबान ने भी अपनी तरफ से बातचीत की पहल नहीं की है। लेकिन माना जा रहा है कि पाकिस्तान ने जिस तरह अमेरिकी सेना के खिलाफ तालिबान को मदद मुहैया कराई, उससे लंबे समय तक बातचीत टालने से तालिबान का रुख भारत के खिलाफ जा सकता है।

मुजाहिद्दीन पर कैसे आगे बढ़े नरसिम्हा राव?

1992 वो साल था, जब पाकिस्तान लगातार मुजाहिद्दीन सरकार के जरिए अफगानिस्तान पर अपना प्रभाव बढ़ा रहा था और हिंदुस्तान के प्रभाव को पूरी तरह खत्म करने की कोशिश में जुटा था। हालांकि, इस दौरान अफगानिस्तान में मुजाहिद्दीनों के अलग-अलग गुट भी बन चुके थे। भारत के प्रभाव को कायम रखने के लिए प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने खुद जिम्मा संभाला और अपनी अफगान नीति में बड़े बदलाव किए। सबसे पहले भारत ने मुजाहिद्दीनों के सभी गुटों से संपर्क साधा। यह सब पाकिस्तान से उनके रिश्ते और विचारधारा को नजरअंदाज करते हुए किया गया।

भारत के पूर्व राजनयिक एमके भद्रकुमार ने एक न्यूज मीडिया समूह को कुछ समय पहले बताया था कि उस दौरान भारत ने काबुल की सरकार से समझौते के लिए सख्त नीति अपनाने का फैसला किया। नरसिम्हा राव सरकार का एक ही लक्ष्य था कि काबुल में जो भी सत्ता में है, हमें उसी से समझौता करना है। साथ ही संवेदनशील मसलों पर भारत के अहम हितों को साधने के लिए दोस्ती बनाने पर ध्यान देना है। राव की नीति के मुताबिक, भारत को अफगानिस्तान के लोगों के साथ रिश्ते (पीपुल टू पीपुल रिलेशनशिप) विकसित करने थे, ताकि आम जनता में भारत के प्रति अच्छी छवि स्थापित की जा सके।

बताया जाता है कि इसका असर यह हुआ कि भारत सरकार ने अफगानिस्तान को गृहयुद्ध के दौरान भी खाने और अहम जरूरतों की आपूर्ति शुरू कर दी। इसके बाद तत्कालीन मुजाहिद्दीन सरकार के प्रमुख बुरहानुद्दीन रब्बानी ने भी भारत सरकार की कोशिशों पर एक कदम आगे बढ़ाया और 1992 में ही साफ कर दिया कि उनकी सरकार कश्मीर मुद्दे पर दखल नहीं देगी। उन्होंने तब पाकिस्तान को बड़ा झटका देते हुए कहा था- “उम्मीद है कि कश्मीर मुद्दा संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के तहत बातचीत और समझौते से सुलझ जाए।” बताया जाता है कि भारत के साथ अच्छे रिश्ते से मुजाहिद्दीनों को न सिर्फ मदद मिलती रही, बल्कि उनके लिए पाकिस्तान के बढ़ते प्रभाव को संतुलित करना भी आसान हो गया।

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